Ankur Gupta : अंकुर गुप्ता को 28 साल की कानूनी लड़ाई के बाद 50 साल की उम्र में नौकरी मिलेगी। उन्होंने 28 साल पहले 1995 में डाक विभाग में पोस्टल असिस्टेंट पद पर नौकरी के लिए आवेदन किया था। परीक्षा देकर नौकरी ज्वाइन कर प्रि इंडेक्शन ट्रेनिंग भी ली। फिर अचानक Ankur Gupta को नौकरी से निकाल दिया गया। ये बोलकर की उन्होंने 12वीं वोकेशनल स्ट्रीम से की है और वोकेशनल स्ट्रीम वालों को ये नौकरी नहीं मिल सकती।
Ankur Gupta ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण में याचिका दायर की। फैसला उनके हक में आया, पर नौकरी में वापस नहीं लिया गया। सरकार अड़ी रही। एक के बाद दसूरी कोर्ट में अपील करते रहे। अंत में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अब वहां से भी केंद्र सरकार को निराशा हाथ लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि अंकुर गुप्ता को नौकरी पर रखे। इस बीच 28 साल बीत गए और अंकुर गुप्ता अब 50 साल के हो चुके हैं।
कोर्ट के आदेश से न सिर्फ उन्हें नौकरी वापस मिलेगी। बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उनकी पेंशन और सेवानिवृत्ति के लाभ को भी कन्फर्म करने का भी ख्याल रखा है।
11 अक्टूबर को जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और दिपांकर दत्ता की पीठ ने अंकुर को नौकरी पर रखने का यह फैसला संविधान के आर्टिकल 142 के तहत मिली विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुनाया है। कोर्ट ने फैसले में कहा है कि-
Ankur Gupta को मनमाने और भेदभाव तरीके से चयन से वंचित किया गया। कोर्ट ने कहा कि सरकार की तरफ से लापरवाही हुई। उसने संशोधित नियम और गजट अधिसूचना की ट्रिब्यूनल में पेश नहीं किया। सरकार की इस लापरवाही का खामियाजा प्रतिवादी नहीं भुगत सकता। कोर्ट ने आदेश दिया अंकुर को शुरुआत में पोस्टल असिस्टेंट के पद पर प्रोबेशन पर रखा जाए। जिस पद पर उसका सेलेक्शन हुआ था।
अगर कोई पद खाली न हो तो अतिरिक्त पद सृजित किया जाए। आदेश में कोर्ट ने साफ किया कि चूंकि प्रतिवादी अंकुर ने वास्तव में नौकरी नहीं की है, इसलिए न वह बकाया वेतन पाने का अधिकारी है न ही 1995 से वरिष्ठता का दावा कर सकता है।
जज भगवान नहीं !
केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि न्यायाधीश भगवान नहीं है। वह सिर्फ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं और वादियों या वकिलों को हाथ जोड़कर बहस करने की जरूरत नहीं है। न्यायमूर्ति पीवी कुन्हिकृष्णन ने यह बात तब कही, जब एक वादी ने हाथ जोड़कर और आंखों में आंसू लेकर अपने मामले पर बहस की।
जस्टिस पीवी ने कहा- भले ही अदालत को न्याय के मंदिर के रुप में जाना जाता है, पर पीठ में ऐसे कोई देवता नहीं हैं जिन्हें मर्यादा बनाए रखने के अलावा वकीलों और वादियों से किसी तरह की श्रद्धा की जरूरत हो। सबसे पहले किसी भी वादी या वकील को अदालत के सामने हाथ जोड़कर अपने मामले पर बहस करने की जरूरत नहीं है।
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